
कुछ दिन पहले हॉटस्टार ओटीटी प्लेटफार्म पर आई “क्रिमिनल जस्टिस: बिहाइंड क्लोज्ड डोर” वेब सीरीज ने एक ऐसे मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिस पर हमारा समाज बात तक करना पसंद नहीं करता है-“मैरिटल रैप या वैवाहिक बलात्कार”।यह एक ऐसा मुद्दा है जिसपर हमारा तथाकथित सभ्य समाज मौन रहना ही पसंद करता है।
भारत में वैवाहिक बलात्कार की कोई विधिक परिभाषा नहीं है। फिर भी दुनिया के जिन देशों में मैरिटल रेप को अपराध माना जाता है वहां इसका सीधा-सा मतलब है कि कोई भी व्यक्ति अगर अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध या उसकी अनुमति के बिना, बलपूर्वक उससे शारीरिक संबंध बनाता है,तो वह मैरिटल रेप या बलात्कार का दोषी होगा।
यह आश्चर्यजनक है कि वर्तमान में विश्व के लगभग 100 से अधिक देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित किया गया है, परंतु दुर्भाग्य से भारत विश्व के उन देशों में से एक है जहाँ वैवाहिक बलात्कार को आज भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है।
IPC की धारा 375 में बलात्कार को परिभाषित किया गया है।इसमें कहा गया है कि यदि कोई पुरुष अगर किसी महिला के साथ ”महिला की इच्छा के विरुद्ध” शारिरिक संबंध बनाता है तो इसे रेप अथवा बलात्कार कहा जायेगा।परन्तु IPC की धारा 375 के ही अपवाद 2 के तहत 15 वर्ष से अधिक की आयु के पति और पत्नी के बीच अनैच्छिक यौन संबंधों को धारा 375 के तहत निर्धारित “बलात्कार” की परिभाषा के दायरे से बाहर रखा गया है।
यह विरोधाभास न केवल महिला अधिकारों को सीमित करता है बल्कि यह बाल अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रसित IPC-375 का अपवाद 2 न केवल पुरुषों के घृणित कृत्यों को अवैध संरक्षण प्रदान करता है बल्कि इसे न्याययोचित भी ठहरता है। यह रेप या बलात्कार को विधिक स्वीकृति और संस्थागत संरक्षण भी प्रदान करता है।ऐसे में यह सवाल उठता है कि विवाहित और अविवाहित महिला के बीच यह अतार्किक अंतर क्यों किया गया है? यह महिलाओं के ‘ना कहने के अधिकार’ अर्थात ‘असहमति के अधिकार’ क्यों को छिनता है?
‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (NCRB) द्वारा जारी ‘भारत में अपराध-2019’ (Crime in India-2019) रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 70% महिलाएँ घरेलू हिंसा की शिकार हैं। मैरिटल रेप भी घरेलू हिंसा का ही एक रूप है। भारत में प्रत्येक 16 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है और हर 4 मिनट में महिला अपने संबंधी से किसी न किसी प्रकार के उत्पीड़न का शिकार होती हैं;जो हमारे समाज के एक विभत्स रूप को दिखाता है।ऐसे में यह सवाल लाज़मी है कि महिलाओं के प्रति इस अमानवीय व्यवहार को आखिर एक मौन स्वीकृति क्यों प्राप्त है? आखिर क्या कारण है कि मैरिटल रेप जैसी घटनाएं रुक नहीं रही है?
इसका सबसे बड़ा कारण हमारी सामाजिक व्यवस्था और हमारी मानसिकता है, जो एक स्त्री को केवल यौनाचार और संतानोत्पत्ति का साधन मात्र मानती है।पति की इच्छाओं को पूरा करना और अपने पति को खुश रखना ही एक आदर्श पत्नी का धर्म होता है;हमारे समाज की यह विकृत मानसिकता,महिलाओं के साथ अन्याय का सबसे बड़ा कारण है। प्रारंभ में विवाह जैसी संस्था स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित थी ,किन्तु धीरे-धीरे इसका संतुलन पुरुषों के पक्ष में झुकने लगा जहाँ पत्नी पति की संपत्ति बन गयी और एक स्त्री का पत्नी के रूप में अधिकार अत्यंत सीमित हो गया।विवाह महिलाओं के साथ अन्याय और उनके शोषण का एक संस्थागत माध्यम बन गया।
महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा का एक कारण हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की कमियां भी है।एक तो ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग नहीं होती है (परिवार का महिलाओं का साथ न देना, सामाजिक शर्म,चारित्रिक रूप से कलंकित करने की कुप्रथा,पति पर आर्थिक निर्भरता,तलाक के प्रति हमारे समाज का नकारात्मक दृष्टिकोण, न्याय प्रणाली का लैंगिक रूप से संवेदनशील न होना आदि के कारण) और अगर रिपोर्टिंग होती भी है तो ऐसे मामलों में (यहाँ तक कि बलात्कार के मामलों में भी) दोष सिद्धि दर बहुत ही कम है।जो कहीं न कहीं ऐसे अपराधियों और अपराधों को प्रोत्साहित करती है।
कोरोना के समय में जब घरेलू हिंसा के मामले में तेजी से वृद्धि हुई है तो यह स्वाभाविक है कि मैरिटल रेप के मामलों में भी वृद्धि हुई होगी। मैरिटल रेप एक बार नहीं ,एक महिला के साथ बार-बार होने वाली घटना है।बहुत से मामलों में यह देखा गया है कि इसमें पति के साथ-साथ अन्य परिचित भी शामिल होते हैं। हर बार एक महिला को अपमानित किया जाता है, उसकी अस्मिता ,उसके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को विखंडित किया जाता है।
यह पीड़ा न सिर्फ उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर करती है बल्कि उनकी मानसिक और भावनात्मक स्थिति को भी कमजोर करती है। अगर किसी महिला के साथ यह गर्भावस्था के दौरान होता है तो माँ के साथ-साथ बच्चे के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाता है।
मैरिटल रेप IPC-375 की मूल भावना के विपरीत है,क्योंकि बलात्कार बलात्कार ही होता है फिर वो चाहे एक विवाहित महिला के साथ हो या एक अविवाहित स्त्री के साथ; इसका प्रभाव समान ही होता है।यह न केवल संविधान के अनुच्छेद-14 के अंतर्गत प्राप्त “समानता के अधिकार” का उल्लंघन करता है बल्कि अनुच्छेद-21के तहत प्राप्त “स्वस्थ्य , सुरक्षित व गरिमामय जीवन” के अधिकारों का भी उल्लंघन करता है।
कर्नाटक राज्य बनाम कृष्णप्पा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘गैर-सहमति से किया गया संभोग शारीरिक और यौन हिंसा के समान है और यौन हिंसा एक अमानवीय कृत्य के अलावा महिला के निजता और पवित्रता के अधिकार का उल्लंघन है।’ सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यौन गतिविधि से जुड़े विकल्प को संविधान के ‘अनुच्छेद-21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजता, गरिमा और शारीरिक अखंडता’ के अधिकारों के समान बताया।
न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टुस्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ‘निजता के अधिकार’ को सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है।
“महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा” ने भी यह माना है कि ‘कोई भी लिंग आधारित हिंसा जो महिलाओं के शारिरिक, मानसिक व भावनात्मक उत्पीड़न का कारण है,तो वो महिलाओं के विरुद्ध अपराध होगा’। वहीं वर्ष 2013 में ‘महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति’ ने यह अनुशंसा की है कि भारत सरकार मैरिटल रेप को अपराध घोषित करे।यही सुझाव जस्टिस वर्मा समिति ने भी दी थी।
मैरिटल रेप को अपराध घोषित न करना समानता आधारित संवैधानिक व्यवस्था का दोहरा मानदंड कहा जायेगा।संविधान में लिखित स्वंत्रता, समानता और न्याय जैसे शब्द मृत होंगे यदि देश की आधी आबादी को अपने ही शरीर पर अधिकार नहीं दिया जायेगा।अब समय आ गया है कि सरकार इस विषय में कठोर कानून का निर्माण करे।
बलात्कार सिर्फ एक विधिक समस्या ही नहीं है बल्कि उससे कहीं ज्यादा एक सामाजिक और मानसिक बीमारी है।पति-पत्नी के रिश्ते को सेक्स से ही जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, इसमें प्यार,सम्मान और भावनाओं की जगह इससे कहीं ज्यादा होती है। एक नैतिक व सभ्य समाज के नाते हमें यह समझना होगा कि विवाह जैसी संस्था की पवित्रता और गरिमा तभी बरकरार रहेगी जब इसमें स्त्री और पुरूष दोनों को समान अधिकार प्राप्त होंगें तथा दोनों के समान कर्तव्य निर्धारित किये जायेंगे।
अनिरुद्ध रॉय चौधरी द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘पिंक’(2016) के आखिरी दृश्य में अमिताभ बच्चन की ये पंक्तियां सीमित शब्दों में एक स्त्री के अधिकारों को तथा एक पुरुष के कर्तव्य को बता देता है-‘ना’ सिर्फ एक शब्द नहीं, अपने-आप में एक पूरा वाक्य है।इसे किसी तर्क, स्पष्टीकरण, एक्सप्लेनेशन या व्याख्या की जरूरत नहीं होती। ‘ना’ का मतलब ‘ना’ ही होता है….. उसे बोलने वाली लड़की कोई परिचित हो, फ्रेंड हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या आपकी अपनी बीवी ही क्यों न हो।नो मीन्स नो….
एक पुरूष के नाते हमें यह समझना ही होगा कि
‘ना’ न तो पुरुषत्व पे सवाल उठता है और न ही पुरूष के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाता है।हमें यह समझना होगा कि ‘ना’ उनका अधिकार है ,’ना’ उनकी अस्मिता है और उनके ‘ना’ का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है।
Source: (Writers own thoughts)
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